Poetry

समर्पण (SAMARPAN) by Chetna Gola

रिश्ता जो एक दिन जुड़ गया था,  गठबंधन से तुम्हारा मेरा,
समाज के रिवाज़ों का वो गठबंधन, एक समर्पण था मजबूरी का

हम  बरबस  बंधे थे उस रिश्ते में, वो रिश्ता जो अनजाना था 
पर बाँध गया था हम अजनबियों को, न जाना न पहचाना था 

एक फासला था झिझक का, एक कमी सी थी पहचान की
एक अजनबी एहसास था, और दूरी भी थी एहसास की

भागती रही ज़िन्दगी हमारी, लगातार बिना रुके
धूूप छाँव, खुशी और ग़म को, आँचल में समेटे हुए

कुछ अलग अलग हो कर भी, हम साथ साथ चलते रहे 
और धीरे धीरे एक दुसरे की, ख्वाहिशें सुनते रहे

धीरे धीरे बन गया वो रिश्ता अब विश्वास का
स्वीकार किया इक दूजे को, अब रिश्ता है पहचान का 

तुम और मैं तब भी कितने अलग थे और आज भी हैं
पर अब बंधन नहीं गठबंधन में, बस समर्पण है, विश्वास है

हमेश चाहा मैंने उड़ना बस आसमान में 
और चाहा तुमने रहना धरती के कुछ पास में 

तुम यहाँ, और मैं वहां पतंगों सी उड़ती रही 
बेख़ौफ़, बेझिझक, आज़ाद सी फिरती रही 

ज़िन्दगी के उतार चढ़ाव के बीच भी मैं उड़ती रही,
तुम बस मुझे थामते रहे, और प्यार से सम्हालते रहे, 

क्यूंकि गठबंधन से जुड़ा समाज का हर झूठा बंधन, खोल दिया है तुमने 
और खुद को बना कर मेरा सहारा, आज़ाद छोड़ दिया है तुमने

पहचान लिया है तुमने मेरे दिल की हर धड़कन को
और जान लिया है मेरी हर बेचैनी हर हलचल को

धीरे धीरे मैं अपनी उड़ान का हर पड़ाव लांघती रही
और तुम बस मुस्कुराते रहे, मुझे निहारते रहे

मैं मंज़िले पार करती रही, उड़ती रही, उड़ती रही,
और तुम धीरजता से, बस खुशियां बटोरते रहे 

क्यूंकि तुम जानते हो की जब मैं थक जाऊँगी, ऊब जाऊँगी 
तो हमेशा की तरह लौट आऊँगी तुम्हारे पास

और तुम बिना कोई सवाल किये, मुझे खुद में समेट लोगे
निखार दोगे फिर से मुझे और संवार दोगे फिर से

एक नया विश्वास दोगे मुझे, नयी उड़ान भरने का
क्या जानते हो की तुम्हारा समर्पण ही मेरा बंधन है

और जब मैं नए आसमानों को खोजने निकलूंगी 
तो फिर थामे रहोगे मेरी डोर और संभाले रहोगे मुझे

मुझपर समर्पित से
वो समर्पण जो बंधन से परे है, और परे है अहंकार से,

वो समर्पण जिसने दिए हैं आज़ादी के नए पंख मुझे
नए मायने हमारे गठबंधन को

वो जो समर्पित है आकाँक्षाओं पर मेरी
अपने हर अनुभव और उपलब्धि का श्रेय देती हूँ तुम्हे 

अपनी हर ख़ुशी का श्रेय देती हूँ तुम्हे
और हमेशा की तरह आज फिर एक बार 

बहुत प्यार और विश्वास के साथ, 
खुद को समर्पित करती हूँ, तुम्हारे इस समर्पण पर

वक़्त  – By Manoj Tiwari – 6/20/2023

वक़्त भाग रहा है या हम भाग रहे हैं, 
इसी असमंजस में वक़्त, 
गुज़रता चला जा रहा है 
जैसे एक मुठ्ठी से फिसलती रेत
इस सोच में कि भागना अनिवार्य है 
हम कहीं भी भाग रहे हैं 
इस चूहों की दौड़ में 
लगातार भाग रहे हैं 
किसी को नहीं पता जाना कहाँ है 
पर हम भाग रहे हैं  |

पिछले सात दशकों से मैं भाग रहा हूँ 
यह सोच कर कि मुझे वक़्त के साथ चलना है 
बगैर जाने कि वक़्त कहाँ है 
वक़्त भाग रहा है या तटस्थ खड़ा है
और सिर्फ हम ही भागे जा रहे हैं. 

जब मैं पीछे मुड़ कर देखता हूँ 
तो पाता हूँ कि मैं दस वर्ष पहले जहाँ था 
आज भी वहीँ हूँ 
और शायद दस वर्ष बाद भी यहीं रहूंगा  
सिर्फ नज़ारा और नजरिया बदल गया है,
या  बदल रहा है वक़्त ?

मुझे क्या पता वह कहाँ और कब निकल गया 
वह तो एक मृग मरीचिका की भांति 
शायद कहीं था ही नहीं, 
वह सिर्फ काल्पनिक था हमारे दिमागों में 
हमारी सोच में  |
या जो अभी इस क्षण हम महसूस कर रहे हैँ, 
शायद वही वक़्त है 
पर हम इस क्षण को बगैर महसूस किये 
उसे और कहीं ढूँढ़ते हुए चले जा रहे हैँ
क्यूंकि महसूस करने के लिए हमारे पास वक़्त नहीं है

आज सात दशकों के बाद  
सोचता हूँ कि मैं वक़्त के पीछे ने भागा होता 
इस चूहों कि दौड़ में न जुड़ा होता,
तो कहाँ होता 
क्या वक़्त मेरा इंतज़ार करता या, 
एक स्वर्ण मृग बन के मेरा स्वागत करता ?
यह वक़्त आखिर कौन है, क्या है, कहाँ है
बस इसी प्रश्न की खोज में आज भी भाग रहा हूँ

यह कहाँ आ गए हैं हम – By Manoj Tiwari – Winter of 2002 in India

यह कहाँ आ गए हैं हम,
सिर्फ हम ही हम हैं 
और कोई दिखता भी नहीं 
चारों तरफ ग़रीबी, बेकारी,
आदमी पर गिरता, रेंगता आदमी,
लेकिन मुझे कोई दिखता क्यों नहीं 
बूढी कुम्हलाई माँ का दर्द 
भाई बहन का हालातों से जूझना 
चारों तरफ से बढ़ती निराशा की आंधी 
हाथों से खिसकते सपने 
लेकिन मुझे कुछ दिखता क्यों नहीं 
शायद डॉलर का रेट बढ़ने से 
खरीदारी से समय नहीं मिला 

प्यार – By Manoj Tiwari – Winter of 2002 in India

प्यार की बोतलें ऐसे ही खुल रही थीं जैसे,
दिल्ली के फार्म हाउस की पार्टीज में शराब
हर पड़ाव पर दिलों के दरवाज़े
घरों के दरवाज़ों से शायद बड़े ही थे
चाहे घर में दूध आये या न आये 
चाहे कारों की कतारें लगी हों 
चाहे आमदनी एक हज़ार की हो 
या एक करोड़ की,
प्यार सबके पास बराबर ही था 
सोचता हूँ यह प्यार हर व्यक्ति को क्यों नहीं मिल पाता
जो एक व्यक्ति को इतना प्यार दे सकते हैं 
क्यों नहीं दे पाते वही प्यार
बाकि के रिश्तेदारों और देशवासियों को
जब की माँ कहती थी की प्यार देने से प्यार बढ़ता है 

सफर – By Manoj Tiwari – Winter of 2002 in India

कल गुज़र रहा था राजधानी के रेलवे ट्रैक्स के ऊपर से 
एक शानदार एयर कंडिशन्ड डब्बे में 
बाहर का दृश्य कितना भयावान सा लग रहा था 
चारों तरफ कूड़ा, ग़लीच और कीच
उनके बीच में द्वीपों की भांति 
छोटे छोटे कपड़ों, टट्टरों और पॉलिथीन की बनी झोपड़ियां 
छोटू और मुन्नी के कपडे, फटे लत्ते, जो 
बदन में चिपकने के काबिल भी नहीं रहे 
आज झोपड़ी के खिड़की दरवाज़े बन कर 
घर की शोभा बढ़ा रहे थे 
सोचा ,
आखिर इनको हवा महलों की ज़रुरत भी क्या है 
बाप सारे दिन कहीं शराब पिए धुत्त पड़ा होगा, या 
रात दिन दिल्ली की मेट्रो के ईंट ढोह रहा होगा 
माँ लगा रही होगी झाड़ू कहीं, या 
बर्तन साफ़ करती होगी, और 
डांट भी खाती होगी कहीं,
पंद्रह मिनट लेट जो हो गयी थी 
छोटू और मुन्नी व्यस्त होंगे चौराहे पर 
लोगों की हौंडा और mercedes चमकाने में 
ताकि कार वाले साहब के बच्चे 
प्राइवेट स्कूल में शान से उतर सकें 
काश उनके दिलों को भी चमका सकते वह 

कीचड और झोपड़ियों के द्वीपों के बराबर से 
mercedes और तमाम अधिकारी कारों का एक कारवां निकला है 
सबके शीशे ऊपर हैं, और काले हैं 
मेरी ट्रैन के डब्बे के शीशे भी बंद हैं 
कम से कम छोटू और मुन्नी की झोपड़ियों 
की बदबू तो नहीं आ रही अंदर 
मुझे तो यह भी नहीं पता की आखिर
ये बदबू कैसी होतो है 
सड़े हुए खाने की, पेशाब की, मरे जानवरों की 
या लाशों की 
ये चलती फिरती लाशों की बदबू कैसी होती है 
वह भी जान नहीं पाया 
कारों का कारवां भी शायद आज तक ये जान नहीं पाया 
वहां कीचड़ों के बीच, ढेर पर बने ढेर, और 
चार डंडियों पर टिका 
छोटू और मुन्नी का हवा महल 
कैसे दिखता,
आखिर कारों के उड़ते धुंए में,
ट्रैन के शोर में और
काले शीशों के अंधकार में 

ट्रेन दिल्ली स्टेशन पर आकर रुक गयी 
सारी गंदगियों से दूर 
हाँ, प्लेटफार्म पर पड़े हुए कुछ लोग
ज़रूर रास्ते में आ रहे थे 
डर भी था की कुली कहीं ज़्यादा पैसे न ऐंठ ले 
डबल और ट्रिपल मास्टर्स की डिग्रीयां, 
एक अनपढ़ आदमी से भयभीत थीं कि
कहीं दस रूपये ज़्यादा न ले ले 

टैक्सी खेल गाओं कि पॉश कॉलोनी कि 
तरफ तेज़ी से भाग रही थी 
और मैं चर्चा कर रहा था बेटी से 
उसके खर्चों की 
इसी बीच एक आवाज़ आयी 
“साहब कल से कुछ खाया नहीं है, भाई बीमार है”
सहज ही निकल पड़ा 
“तो माँ बाप कहाँ हैं” 
दस साल की लड़की एयर कंडिशन्ड टैक्सी की खिड़की के 
दुसरे तरफ से बोली, “नहीं हैं साहब” 
ड्राइवर भी बोल उठा 
“यह सब ऐसे ही कहानियां सुनाते हैं साहब” 
इतने में बत्ती हरी हुई 
और टैक्सी फिर तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ ली 
मैं फिर से व्यस्त हो गया अपनी बेटी की 
दस हज़ार की ड्रेस की चर्चा में 
पीछे से कारों के कारवां 
लगातार आ रहे थे, जा रहे थे 
और उनके बीच तटस्थ खड़ी थी 
दस साल की, खोई सी, मुन्नी